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भगवान, वो दिव्य प्रकाश का पुंज हैं, जिसका अनुगमन करके हम जीवन के सर्वाेच्च शिखर पर पहुँच सकते हैं। मानव के जीवन का सर्वोच्च शिखर क्या है? इस बात को लेकर सभी महानधर्मों और महापुरुषों ने अपने मत और विचार प्रतिपादित किए हैं। हर जीवन का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य ही होता है, यह उद्देश्य भी सत-रज और तम गुणों में विभाजित होता है। सतो गुण जहाँ जीवन को दूसरों के कल्याण में समर्पित करने को प्रेरित करता है, वहीं रजोगुण स्वयं के कल्याण और भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर आदेशित करता है। तमो गुण सही को पहचान ही नहीं पाता और गलत से विमुख नहीं हो सकता, इस कारण यहाँ क्या उद्देश्य है और क्या अनुद्देश्य समझ पाना संभव ही नहीं है।
हर मानव अपने विचारों से कर्मों का सृजन करता है और प्रत्येक कर्म किसी न किसी उद्देश्य पर आरूढ़ होकर लक्ष्य को प्राप्त करता ही है। ये चक्र मानव की गति को निर्धारित करता है। मानव तीन गुणों में विभक्त हैं और इसी कारण उनके उद्देश्यों में अंतर होता है। जो एक को भला लगता है दूसरे को वो फूटी आँख नहीं सुहाता है। महापुरुषों का उद्देश्य जन कल्याण होता है इससे उन्हें सुख मिलता है, ये सुख मन के अंतकरणों को आनंदित करता है, ये सुख जहाँ महापुरुषों को उचित लगता है वहीं रजोगुणी को ये अनुपयुक्त लगता है।
उसे लगता है कि ये मूर्खता है। उसके लिए स्वयं के सुख संसाधन जुटाना भोग में रत रहना ही श्रेष्ठ है। तमोगुणी उक्त दो गुणों को लेकर दिग्भ्रमित रहता है। वो सही को गलत और गलत को सही मानकर आचार-व्यवहार करता है। इससे न तो वो जगत का कल्याण करता है, न ही स्वयं का ही। सतो गुण सद्अर्थ, रजो गुण स्व-अर्थ और तमो गुण अनर्थ का सृजन करते हैं। कहीं परमार्थ, कहीं स्वार्थ और कहीं अनार्थ का संयोग होता है। सतो गुण, रजो गुण के प्रति उदासीन और तमो गुण के प्रति विरक्ति का भाव रखता है।
इस प्रकार तीनों गुणों में से जगत कल्याण सतो गुण, स्व कल्याण रजो गुण और अकल्याण तमो गुण को जीवन का सर्वोच्च शिखर मानते हैं। ये सर्वोच्च शिखर जीवन की गति को भी निर्धारित करते हैं, वहीं जीवन के पश्चात पुनर्जन्म को भी निर्धारित करते हैं। भगवान या ईश्वर का ज्ञान हमें जनकल्याण के उच्च लक्ष्य के आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित व अग्रसर करता है। यह आदर्श जीवन हमें आत्मिक सुख और चेतना प्रदान करता है। यह सुख हमें पूर्णता प्रदान करता है और हम तभी तक जन्म लेते हैं, जब तक हम अपूर्ण हैं। पूर्ण होने के पश्चात हमारी आत्मा को मुक्ति मिल जाती है।
ईश्वर को जब हम स्वार्थपूर्ति का साधन बना लेते हैं, तब रजो गुण प्रबल हो जाता है। स्वार्थ में हमारा हृदय पीडि़त होकर मोह में पड़ जाता है और जन्म मरण का चक्र शुरू हो जाता है। हमारा चरम लक्ष्य यहाँ स्वयं का भला करना होता है, चाहे दुनिया जाए भाड़ में। जब हम ईश्वर को गलत समझ लें स्वयं के विचारों को (भले ही वो गलत हों) श्रेष्ठ समझकर व्यवहार करें, स्वयं को ही भगवान मान लें, तो वह न तो जगत का कल्याण करेगा न ही स्वयं का ही भला कर सकेगा। यहाँ उसका उच्च लक्ष्य हो भ्रम केवल भ्रम और लक्ष्य का परिणाम होगा-निम्र श्रेणियों में जन्म। मित्रों अगर दूसरों का कुछ भला अपने हित के साथ किया जा सके, तो ये सर्वश्रेष्ठ नहीं तो महानेष्ठ भी नहीं होगा। अपना हित करें पर दूसरों का अहित न करें, हो सके तो उनका कुछ भला अवश्य कर दें।
हर जीवन का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य ही होता है, ये उद्देश्य भी सत-रज और तम गुणों में विभाजित होता है। सतो गुण जहाँ जीवन को दूसरों के कल्याण में समर्पित करने को प्रेरित करता है वहीं रजोगुण स्वयं के कल्याण और भौतिक लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर आदेशित करता है। तमो गुण सही को पहचान ही नहीं पाता और गलत से विमुख नहीं हो सकता इस कारण यहाँ क्या उद्देश्य है और क्या अनुद्देश्य समझ पाना संभव ही नहीं है।
हर मानव अपने विचारों से कर्मों का सृजन करता है और प्रत्येक कर्म किसी न किसी उद्देश्य पर आरूढ़ होकर लक्ष्य को प्राप्त करता ही है। ये चक्र मानव की गति को निर्धारित करता है।
मानव तीन गुणों में विभक्त हैं और इसी कारण उनके उद्देश्यों में अंतर होता है। जो एक को भला लगता है दूसरे को वो फूटी आँख नहीं सुहाता है। महापुरुषों का उद्देश्य जन कल्याण होता है इससे उन्हें सुख मिलता है, ये सुख मन के अंतकरणों को आनंदित करता है, ये सुख जहाँ महापुरुषों को उचित लगता है वहीं रजोगुणी को ये अनुपयुक्त लगता है उसे लगता है कि ये मूर्खता है। उसके लिए स्वयं के सुख संसाधन जुटाना भोग में रत रहना ही श्रेष्ठ है।
तमोगुणी उक्त दो गुणों को लेकर दिक्भ्रमित रहता है। वो सही को गलत और गलत को सही मानकर आचार-व्यवहार करता है। इससे न तो वो जगत का कल्याण करता है न ही स्वयं का ही।
सतो गुण सद्अर्थ, रजो गुण स्व-अर्थ और तमो गुण अनर्थ का सृजन करते हैं। कहीं परमार्थ, कहीं स्वार्थ और कहीं अनार्थ का संयोग होता है। सतो गुण, रजो गुण के प्रति उदासीन और तमो गुण के प्रति विरक्ति का भाव रखता है।
इस प्रकार तीनों गुणों में से जगत कल्याण सतो गुण, स्व कल्याण रजो गुण और अकल्याण तमो गुण को जीवन का सर्वोच्च शिखर मानते हैं।
ये सर्वोच्च शिखर जीवन की गति को भी निर्धारित करते हैं वहीं जीवन के पश्चात पुनर्जन्म को भी निर्धारित करते हैं। भगवान या ईश्वर का ज्ञान हमें जनकल्याण के उच्च लक्ष्य के आदर्शों पर चलने के लिए प्रेरित व अग्रसर करता है। ये आदर्श जीवन हमें आत्मिक सुख और चेतना प्रदान करता है। ये सुख हमें पूर्णता प्रदान करता है और हम तभी तक जन्म लेते हैं जब तक हम अपूर्ण हैं पूर्ण होने के पश्चात हमारी आत्मा को मुक्ति मिल जाती है।
ईश्वर को जब हम स्वार्थपूर्ति का साधन बना लेते हैं तब रजो गुण प्रबल हो जाता है। स्वार्थ में हमारा हृदय पीडि़त होकर मोह में पड़ जाता है और जन्म मरण का चक्र शुरू हो जाता है। हमारा चरम लक्ष्य यहाँ स्वयं का भला करना होता है चाहे दुनिया जाए भाड़ में।
जब हम ईश्वर को गलत समझ लें स्वयं के विचारों को (भले ही वो गलत हों) श्रेष्ठ समझकर व्यवहार करे-स्वयं को ही भगवान मान लें, तो वो न तो जगत का कल्याण करेगा न ही स्वयं का ही भला कर सकेगा। यहाँ उसका उच्च लक्ष्य हो भ्रम केवल भ्रम और लक्ष्य का परिणाम होगा-निम्र श्रेणियों में जन्म।
मित्रों अगर दूसरों का कुछ भला अपने हित के साथ किया जा सके तो ये सर्वश्रेष्ठ नहीं तो महानेष्ठ भी नहीं होगा। अपना हित करें पर दूसरों का अहित न करें, हो सके तो उनका कुछ भला अवश्य कर दें।
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