देवों में प्रथम पूज्य भगवान श्रीगणेश को सपरिवार नमन करते हुए मैं सभी श्रृष्टियों को भय रहित करने वाले और सर्वदा मंगल करने वाले रामभक्त हनुमान की कथा प्रारंभ करता हूं।
ये कहानी त्रेतायुग से भी पूर्व की है जब अमृत मंथन हुआ था। अमृत मंथन के बाद जब भगवान शिव ने हलाहल विष का पान कर उसे कंठ में धारण कर लिया। इसके बाद अमृत निकला। भगवान विष्णु ने छल से देवगणों को अमृत का पान करवा दिया। राक्षसों का कांजी यानी मदिरा मिली। इसी प्रकरण में दैत्यराज बलि के महाबली सेनापति राहू का शीश काट दिया गया। बलि को वामन के वरदान से पाताल लोक का राज्य मिला। सबकुछ कुशलता से पूर्ण हो गया। सब ओर खुशहाली छा गई। देवलोक में नित्य आनंदोत्सव मनने लगा। सब ओर प्रसन्नता थी पर एक शक्ति अभी भी कष्ट की अग्रि में जल रही थी, तप रही थी और एक महान घटना घटित होने वाली थी।
सभी लोकों का भ्रमण करने वाले और जाने-अंजाने महान क्रियाओं को जन्म देने वाले देवर्षि नारद विष्णु लोक में पहुंचे। विष्णु यहां आनंद से थे। देवर्षि बोले- श्री हरि विष्णु को प्रणाम। प्रभु आपके द्वारा सबका कल्याण किया गया। सब ओर कुशल-मंगल हो गया पर……पर क्या देवर्षि भगवान विष्णु ने पूछा। पर उस महाशक्ति का क्या जो जगत कल्याण के लिए विष पीकर क्षण-क्षण कष्ट की महाअग्रि में जल रही है और उनके अंदर ही आपकी भक्ति भी पीडि़त हो रही है। श्री हरि विष्णु नारद जी की बात को समझ गए। देवर्षि हम आपकी बात समझ गए। आप निश्चिंत होकर जाइए। मेरी भक्ति को होने वाले कष्ट को मैं स्वयं हरूंगा। नारद हरि नाम लेते हुए चले गए। अब नारद स्वर्ग पहुंचे और देवराज इंद्र को अपने विष्णु लोक भ्रमण के बारे में बताया और कहा कि वो तैयार रहे उन्हें एक महान कार्य को पूर्ण करना है। निश्चित समय श्रीहरि विष्णु ने मोहिनी का रूप धरा, वो रूप जो साक्षात् राति और काम देव को भी मोहित कर डाले। विष्णु इस रूप के साथ कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे। वायू मद में बहने लगी और चारों ओर सुगंध फैल गई। भगवान शिव का ध्यान टूट गया, उन्होंने मोहिनी को देखा। जगत का पालन और संहार करने वाली दो महाशक्तियों का योग हुआ और इसी योग में शिव के अंदर से दिव्य ज्योतिपुंज का उदय हुआ। देवराज इंद्र इस दिव्य ज्योतिपुंज को लेकर नगमुनि के आश्रम में पहुंचे और उनको बताया कि ये ज्योतिपुंज शिव का अंश है और इस ज्योतिपुंज को रक्षार्थ उनके यज्ञकुंड में प्रतिष्ठित किया जाना है। नगमुनि प्रसन्न हुए और प्रतिष्ठापन की आज्ञा दी। इस तरह वो दिव्य ज्योतिपुंज यज्ञकुंड में प्रतिष्ठित हो गया।
यहाँ स्वर्ग लोक में आनंद ही आनंद था। यहाँ देवजाति, किन्नर, यक्ष, अप्सराएं आदि सुख से थे। सदैव यहाँ आनंद और भोग के कार्यक्रम चलते ही रहते थे। स्वर्ग की सभी अप्सराएं इसमें समान रूप से भाग लेती थीं इन्हीं अप्सराओं में एक अद्वितीय सुंदरी थीं जिनका नाम था पुंजिकस्थला (कुछ जगह इनका नाम कुंजिकस्थला भी मिलता है)। पुंजिकस्थला स्वर्ग की प्रतिष्ठित अप्सरा थी। उनके अद्वितीय सौंदर्य की ख्याति भी समस्त लोकों में व्याप्त थी। देव लोक के शक्तिशाली और सबसे अधिक चपल देवता पवनदेव उन पर मोहित हो गए। दूसरी ओर ऐसा ही प्रेम पुंजिकस्थला के मन में भी उत्पन्न हो गया और दोनों प्रेम मार्ग के पथिक बन गए। दोनों यहां-वहां भ्रमण करते और प्रेम में लीन हो जाते। उनका प्रेम भी देव लोक में चर्चा का विषय बन गया था। एक बार पुंजिकस्थला और पवनदेव की भेंट देवर्षि नारद से हो गई। दोनों ने उनसे आशीर्वाद मांगा। आशीर्वाद देते हुए नारद जी ने कहा, पुंजिकस्थला और पवन देव आप दोनों का प्रेम उचित है प्रेम में श्रृंगार है, रस है, रति है परंतु प्रेम में विरह भी होती है और वेदना भी। यह कहकर नारद जी ने दोनों के मन में शंका उत्पन्न कर दी। दोनों चिंतित हो गए।
देवर्षि नारद विष्णुलोक गए और श्रीहरि विष्णु को अभिमान वश कहने लगे कि वो संसार और मोह माया से परे हैं। विष्णु जान गए कि नारद अभिमानी हो गए हैं तब उन्होंने माया रची और विश्व मोहिनी का स्वयंवर हुआ। नारद भी उसके वर बनकर वहां पहुंच गए। उनका वानर मुख देखकर सभी हंसने लगे और विश्व मोहिनी का विवाह किसी अन्य से हो गया। इस बात से क्रोधित नारद विष्णुलोक की ओर चल पड़े।
पुंजिकस्थला और पवनदेव दोनों भी स:शंक थे। वो दोनों शंका के समाधान के लिए नारद जी को ढूंढने लगे और शीघ्र ही नारद उन्हें विष्णुलोक जाते हुए मिल गए। वो क्रोधित थे। दोनों ने नारदजी को रोका प्रणाम कर शंका का समाधान करना चाहा तो क्रोधित नारद ने उन्हें का कि उनका प्रेम विरह को प्राप्त होगा और पीड़ा ही इसका अंत होगी। इसके बाद नारद विष्णुलोक गए जहां पता चला कि विश्वमोहिनी विष्णु की माया थी और जिससे उनका विवाह हुआ वो श्रीहरि विष्णु ही थे। क्रोधवश नारद ने उन्हें शाप दिया कि श्रीराम अवतार में वो अपनी पत्नी से विरह भोगेंगे और जिसका मुंह उन्होंने उनको दिया था उन्हीं की सहायता से पुन: अपनी पत्नी से मिलेंगे। विष्णु ने मुस्कुराकर उनके शाप को स्वीकार कर लिया। मोह से निकलते ही नारद दुखी हो गए और क्षमा मांगने लगे। हरिविष्णु ने कहा कि ये घटना काल का नियम होकर होनी ही थी इसलिए शोक न करो। नारद संतुष्ट हो गए।
नारद एक दिन हरिनाम लेते हुए जा रहे थे कि पुन: उन्हें पुंजिकस्थला मिलीं जिन्होंने एक बार फिर उसी शंका का समाधान करना चाहा तो नारद ने कहा कि चिंता न करो जो होगा जगतकल्याण के लिए ही होगा। पुंजिकस्थला प्रसन्न हो गईं और पवनदेव को ये बात बताने के लिए उन्हें ढूंढने लगी। पुंजिकस्थला पवन देव को ढूंढते-ढूंढते नगमुनि के आश्रम में जा पहुंचीं। उन्होंने जैसे ही वहाँ यज्ञकुंड में प्रज्जवलित अग्रि के अंतर में उभर रही शिवांश की ज्योति को देखा तो उन्हें मन में सहज ही यह इच्छा पैदा हुई कि काश, यह ज्योति उनका अंश होकर उनके गर्भ में होती। वो उसे एकटक निहारने लगीं तभी नगमुनि वहाँ पहुंचे। वो पुंजिकस्थला को देखकर क्रोधित हो गए और उनको वहाँ से निकल जाने का आदेश दिया। वो वहाँ से चली गईं। वो एक नदी के किनारे पहुँची ही थीं कि उन्होंने पवनदेव को वहाँ देखा उन्होंने उनको बताया कि नारदजी से सभी शंकाओं का समाधान कर दिया है। जो कुछ होगा जगतकल्याण के लिए ही होगा। पवनदेव उससे बहुत प्रसन्न हुए और कुंजिकस्थला सहित जलक्रीड़ा करने लगे। आनंद मग्र वो जलक्रीड़ा में रत थे इस बात से अनभिज्ञ कि कुछ ही समय में भयंकर अनर्थ होने वाला था।
वो दोनों जलक्रीड़ा और प्रेम में मग्र थे और वहीं से कुछ दूर महर्षि मातंग स्नान व पूजा में रत थे। पुंजिकस्थला ने आनंद पूर्वक जल हवा में उछाला जो मातंग ऋषि पर जा गिरा। उनकी पूजा भंग हो गई। वो, पवनदेव व पुंजिकस्थला के पास पहुँचे और जल को अशुद्ध और पूजा भंग करने की बात कही। इस बात पर विवाद हो गया और पुंजिकस्थला उनसे लडऩे लगी। क्रोधित होकर मातंग ने रूपवान अप्सरा से वानरी हो जाने का शाप दिया। वो वानरी हो गई। पवनदेव ने क्षमायाचना की तो मातंग पसीज गए और कहा कि ये एक ऐसे महान कार्य में सहायक होगी जिससे समस्त ब्रम्हांडो का कल्याण होगा और सभी श्रृष्टियाँ निर्भय हो जाएंगी।
वानरी पुंजिकस्थला वन में भाग गईं और पवनदेव मुँह लटकाकर स्वर्ग वापस आ गए। मार्ग में उन्हें नारद मुनि मिले जिन्होंने उनको अकेला पाकर पुंजिकस्थला के बारे में पूछा। दुखी पवनदेव ने उनको सब कुछ कह सुनाया और कहा कि यदि नारदजी को अनिष्ट का आभास था तो उन्होंने पुंजिकस्थला को सही बात क्यों नहीं बताई? नारदजी बोले, पवनदेव मैंने तुम दोनों को संकेत बहुत पहले ही दे दिया था। समझदार को इशारा ही काफी होता है। स्वर्ग पहुंचने पर पुंजिकस्थला को न पाकर देवराज इंद्र ने उनको स्वर्ग से बहिष्कृत कर दिया। दु:खित पवनदेव शिवशंकर की शरण में कैलाश पर चले गए।
कुछ समय बाद एक महान राजा केशरी शिकार करते हुए मातंग ऋषि के आश्रम में जा पहुँचे। राजा ने मातंग ऋषि के आश्रम में पहुँचकर वहाँ की शांति भंग कर दी। क्रोधित होकर मातंग ऋषि ने शाप दिया कि वानरों की तरह उत्पात मचाने वाले राजा, जाओ वानर हो जाओ। केशरी वानर हो गए और उसी पेड़ पर जा चढ़े जहां पूर्व से पुंजिकस्थला वानरी रूप में बैठी थीं।
उन दोनों को देखकर मातंग ऋषि दुखित हुए कि शाप से इन दोनों की ये कैसी गति हो गई। ये दोनों नासमझ थे पर वो तो समझदार थे उन्होंने उन दोनों को ये कैसा शाप दे दिया? मातंग ऋषि ने उन दोनों को देखकर कहा, हे पुंजिकस्थला और केशरी आपका जन्म अब पूर्ण हुआ अब दोनों अपने अगले जन्म की ओर प्रस्थान करो और उस महान कार्य के हेतु बनो जो समस्त सृष्टियों को भयरहित करेगा और कल्याणकारी होगा। दोनों ने अपने नवजीवन की ओर प्रस्थान किया। इसके साथ ही एक महान और अनंत महाक्रिया का आरंभ हो गया।
पुंजिकस्थला का जन्म एक महान भूपति राजा महेंद्र की पुत्री अंजनी के रूप में हुआ और केशरी का जन्म वानरराज वात्सुकि के पुत्र के रूप में हुआ। दूसरी ओर भगवान शिवशंकर ने देवराज इंद्र को बुलाया और पवनदेव को पुन: वापस ले जाने और देवलोक में उचित स्थान दिलवाने का आदेश दिया। पवनदेव देवलोक लौट गए।
इधर एक दुष्ट राक्षस का आतंक चारों ओर फैला हुआ था जिसका नाम था शंभसाधन (इसके भाई कुंभसाधन को महावीर हनुमान ने बाल्यकाल में ही मार दिया था।) शंभसाधन एक दिवस देवी अंजनी का हरण कर ले गया। केशरी ने उसका वधकर अंजनी को मुक्त करवाया। बाद में दोनों का विवाह धूमधाम से हुआ। एक दिवस महादेव ने पवनदेव को बुलाया और आदेश दिया कि वे नगमुनि के आश्रम में प्रतिष्ठित शिवांश को देवी अंजनी के गर्भ में स्थापित कर दें। पवनदेव ने ऐसा ही किया। कुछ समय बाद चैत्र पूर्णिमा के सूर्योदय काल में समस्त सृष्टियों को भयरहित करने वाले शंकरसुवन पवनपुत्र, अंजनीसुत, केशरीनंदन महावीर हनुमान का जन्म हुआ।
देवों में प्रथम पूज्य भगवान श्रीगणेश को सपरिवार नमन करते हुए मैं सभी श्रृष्टियों को भय रहित करने वाले और सर्वदा मंगल करने वाले रामभक्त हनुमान की कथा प्रारंभ करता हूं।
ये कहानी त्रेतायुग से भी पूर्व की है जब अमृत मंथन हुआ था। अमृत मंथन के बाद जब भगवान शिव ने हलाहल विष का पान कर उसे कंठ में धारण कर लिया। इसके बाद अमृत निकला। भगवान विष्णु ने छल से देवगणों को अमृत का पान करवा दिया। राक्षसों का कांजी यानी मदिरा मिली। इसी प्रकरण में दैत्यराज बलि के महाबली सेनापति राहू का शीश काट दिया गया। बलि को वामन के वरदान से पाताल लोक का राज्य मिला। सबकुछ कुशलता से पूर्ण हो गया। सब ओर खुशहाली छा गई। देवलोक में नित्य आनंदोत्सव मनने लगा। सब ओर प्रसन्नता थी पर एक शक्ति अभी भी कष्ट की अग्रि में जल रही थी, तप रही थी और एक महान घटना घटित होने वाली थी।
सभी लोकों का भ्रमण करने वाले और जाने-अंजाने महान क्रियाओं को जन्म देने वाले देवर्षि नारद विष्णु लोक में पहुंचे। विष्णु यहां आनंद से थे। देवर्षि बोले- श्री हरि विष्णु को प्रणाम। प्रभु आपके द्वारा सबका कल्याण किया गया। सब ओर कुशल-मंगल हो गया पर……पर क्या देवर्षि भगवान विष्णु ने पूछा। पर उस महाशक्ति का क्या जो जगत कल्याण के लिए विष पीकर क्षण-क्षण कष्ट की महाअग्रि में जल रही है और उनके अंदर ही आपकी भक्ति भी पीडि़त हो रही है। श्री हरि विष्णु नारद जी की बात को समझ गए। देवर्षि हम आपकी बात समझ गए। आप निश्चिंत होकर जाइए। मेरी भक्ति को होने वाले कष्ट को मैं स्वयं हरूंगा। नारद हरि नाम लेते हुए चले गए। अब नारद स्वर्ग पहुंचे और देवराज इंद्र को अपने विष्णु लोक भ्रमण के बारे में बताया और कहा कि वो तैयार रहे उन्हें एक महान कार्य को पूर्ण करना है। निश्चित समय श्रीहरि विष्णु ने मोहिनी का रूप धरा, वो रूप जो साक्षात् राति और काम देव को भी मोहित कर डाले। विष्णु इस रूप के साथ कैलाश पर्वत पर जा पहुंचे। वायू मद में बहने लगी और चारों ओर सुगंध फैल गई। भगवान शिव का ध्यान टूट गया, उन्होंने मोहिनी को देखा। जगत का पालन और संहार करने वाली दो महाशक्तियों का योग हुआ और इसी योग में शिव के अंदर से दिव्य ज्योतिपुंज का उदय हुआ। देवराज इंद्र इस दिव्य ज्योतिपुंज को लेकर नगमुनि के आश्रम में पहुंचे और उनको बताया कि ये ज्योतिपुंज शिव का अंश है और इस ज्योतिपुंज को रक्षार्थ उनके यज्ञकुंड में प्रतिष्ठित किया जाना है। नगमुनि प्रसन्न हुए और प्रतिष्ठापन की आज्ञा दी। इस तरह वो दिव्य ज्योतिपुंज यज्ञकुंड में प्रतिष्ठित हो गया।
यहाँ स्वर्ग लोक में आनंद ही आनंद था। यहाँ देवजाति, किन्नर, यक्ष, अप्सराएं आदि सुख से थे। सदैव यहाँ आनंद और भोग के कार्यक्रम चलते ही रहते थे। स्वर्ग की सभी अप्सराएं इसमें समान रूप से भाग लेती थीं इन्हीं अप्सराओं में एक अद्वितीय सुंदरी थीं जिनका नाम था पुंजिकस्थला (कुछ जगह इनका नाम कुंजिकस्थला भी मिलता है)। पुंजिकस्थला स्वर्ग की प्रतिष्ठित अप्सरा थी। उनके अद्वितीय सौंदर्य की ख्याति भी समस्त लोकों में व्याप्त थी। देव लोक के शक्तिशाली और सबसे अधिक चपल देवता पवनदेव उन पर मोहित हो गए। दूसरी ओर ऐसा ही प्रेम पुंजिकस्थला के मन में भी उत्पन्न हो गया और दोनों प्रेम मार्ग के पथिक बन गए। दोनों यहां-वहां भ्रमण करते और प्रेम में लीन हो जाते। उनका प्रेम भी देव लोक में चर्चा का विषय बन गया था। एक बार पुंजिकस्थला और पवनदेव की भेंट देवर्षि नारद से हो गई। दोनों ने उनसे आशीर्वाद मांगा। आशीर्वाद देते हुए नारद जी ने कहा, पुंजिकस्थला और पवन देव आप दोनों का प्रेम उचित है प्रेम में श्रृंगार है, रस है, रति है परंतु प्रेम में विरह भी होती है और वेदना भी। यह कहकर नारद जी ने दोनों के मन में शंका उत्पन्न कर दी। दोनों चिंतित हो गए।
देवर्षि नारद विष्णुलोक गए और श्रीहरि विष्णु को अभिमान वश कहने लगे कि वो संसार और मोह माया से परे हैं। विष्णु जान गए कि नारद अभिमानी हो गए हैं तब उन्होंने माया रची और विश्व मोहिनी का स्वयंवर हुआ। नारद भी उसके वर बनकर वहां पहुंच गए। उनका वानर मुख देखकर सभी हंसने लगे और विश्व मोहिनी का विवाह किसी अन्य से हो गया। इस बात से क्रोधित नारद विष्णुलोक की ओर चल पड़े।
पुंजिकस्थला और पवनदेव दोनों भी स:शंक थे। वो दोनों शंका के समाधान के लिए नारद जी को ढूंढने लगे और शीघ्र ही नारद उन्हें विष्णुलोक जाते हुए मिल गए। वो क्रोधित थे। दोनों ने नारदजी को रोका प्रणाम कर शंका का समाधान करना चाहा तो क्रोधित नारद ने उन्हें का कि उनका प्रेम विरह को प्राप्त होगा और पीड़ा ही इसका अंत होगी। इसके बाद नारद विष्णुलोक गए जहां पता चला कि विश्वमोहिनी विष्णु की माया थी और जिससे उनका विवाह हुआ वो श्रीहरि विष्णु ही थे। क्रोधवश नारद ने उन्हें शाप दिया कि श्रीराम अवतार में वो अपनी पत्नी से विरह भोगेंगे और जिसका मुंह उन्होंने उनको दिया था उन्हीं की सहायता से पुन: अपनी पत्नी से मिलेंगे। विष्णु ने मुस्कुराकर उनके शाप को स्वीकार कर लिया। मोह से निकलते ही नारद दुखी हो गए और क्षमा मांगने लगे। हरिविष्णु ने कहा कि ये घटना काल का नियम होकर होनी ही थी इसलिए शोक न करो। नारद संतुष्ट हो गए।
नारद एक दिन हरिनाम लेते हुए जा रहे थे कि पुन: उन्हें पुंजिकस्थला मिलीं जिन्होंने एक बार फिर उसी शंका का समाधान करना चाहा तो नारद ने कहा कि चिंता न करो जो होगा जगतकल्याण के लिए ही होगा। पुंजिकस्थला प्रसन्न हो गईं और पवनदेव को ये बात बताने के लिए उन्हें ढूंढने लगी। पुंजिकस्थला पवन देव को ढूंढते-ढूंढते नगमुनि के आश्रम में जा पहुंचीं। उन्होंने जैसे ही वहाँ यज्ञकुंड में प्रज्जवलित अग्रि के अंतर में उभर रही शिवांश की ज्योति को देखा तो उन्हें मन में सहज ही यह इच्छा पैदा हुई कि काश, यह ज्योति उनका अंश होकर उनके गर्भ में होती। वो उसे एकटक निहारने लगीं तभी नगमुनि वहाँ पहुंचे। वो पुंजिकस्थला को देखकर क्रोधित हो गए और उनको वहाँ से निकल जाने का आदेश दिया। वो वहाँ से चली गईं। वो एक नदी के किनारे पहुँची ही थीं कि उन्होंने पवनदेव को वहाँ देखा उन्होंने उनको बताया कि नारदजी से सभी शंकाओं का समाधान कर दिया है। जो कुछ होगा जगतकल्याण के लिए ही होगा। पवनदेव उससे बहुत प्रसन्न हुए और कुंजिकस्थला सहित जलक्रीड़ा करने लगे। आनंद मग्र वो जलक्रीड़ा में रत थे इस बात से अनभिज्ञ कि कुछ ही समय में भयंकर अनर्थ होने वाला था।
वो दोनों जलक्रीड़ा और प्रेम में मग्र थे और वहीं से कुछ दूर महर्षि मातंग स्नान व पूजा में रत थे। पुंजिकस्थला ने आनंद पूर्वक जल हवा में उछाला जो मातंग ऋषि पर जा गिरा। उनकी पूजा भंग हो गई। वो, पवनदेव व पुंजिकस्थला के पास पहुँचे और जल को अशुद्ध और पूजा भंग करने की बात कही। इस बात पर विवाद हो गया और पुंजिकस्थला उनसे लडऩे लगी। क्रोधित होकर मातंग ने रूपवान अप्सरा से वानरी हो जाने का शाप दिया। वो वानरी हो गई। पवनदेव ने क्षमायाचना की तो मातंग पसीज गए और कहा कि ये एक ऐसे महान कार्य में सहायक होगी जिससे समस्त ब्रम्हांडो का कल्याण होगा और सभी श्रृष्टियाँ निर्भय हो जाएंगी।
वानरी पुंजिकस्थला वन में भाग गईं और पवनदेव मुँह लटकाकर स्वर्ग वापस आ गए। मार्ग में उन्हें नारद मुनि मिले जिन्होंने उनको अकेला पाकर पुंजिकस्थला के बारे में पूछा। दुखी पवनदेव ने उनको सब कुछ कह सुनाया और कहा कि यदि नारदजी को अनिष्ट का आभास था तो उन्होंने पुंजिकस्थला को सही बात क्यों नहीं बताई? नारदजी बोले, पवनदेव मैंने तुम दोनों को संकेत बहुत पहले ही दे दिया था। समझदार को इशारा ही काफी होता है। स्वर्ग पहुंचने पर पुंजिकस्थला को न पाकर देवराज इंद्र ने उनको स्वर्ग से बहिष्कृत कर दिया। दु:खित पवनदेव शिवशंकर की शरण में कैलाश पर चले गए।
कुछ समय बाद एक महान राजा केशरी शिकार करते हुए मातंग ऋषि के आश्रम में जा पहुँचे। राजा ने मातंग ऋषि के आश्रम में पहुँचकर वहाँ की शांति भंग कर दी। क्रोधित होकर मातंग ऋषि ने शाप दिया कि वानरों की तरह उत्पात मचाने वाले राजा, जाओ वानर हो जाओ। केशरी वानर हो गए और उसी पेड़ पर जा चढ़े जहां पूर्व से पुंजिकस्थला वानरी रूप में बैठी थीं।
उन दोनों को देखकर मातंग ऋषि दुखित हुए कि शाप से इन दोनों की ये कैसी गति हो गई। ये दोनों नासमझ थे पर वो तो समझदार थे उन्होंने उन दोनों को ये कैसा शाप दे दिया? मातंग ऋषि ने उन दोनों को देखकर कहा, हे पुंजिकस्थला और केशरी आपका जन्म अब पूर्ण हुआ अब दोनों अपने अगले जन्म की ओर प्रस्थान करो और उस महान कार्य के हेतु बनो जो समस्त सृष्टियों को भयरहित करेगा और कल्याणकारी होगा। दोनों ने अपने नवजीवन की ओर प्रस्थान किया। इसके साथ ही एक महान और अनंत महाक्रिया का आरंभ हो गया।
पुंजिकस्थला का जन्म एक महान भूपति राजा महेंद्र की पुत्री अंजनी के रूप में हुआ और केशरी का जन्म वानरराज वात्सुकि के पुत्र के रूप में हुआ। दूसरी ओर भगवान शिवशंकर ने देवराज इंद्र को बुलाया और पवनदेव को पुन: वापस ले जाने और देवलोक में उचित स्थान दिलवाने का आदेश दिया। पवनदेव देवलोक लौट गए।
इधर एक दुष्ट राक्षस का आतंक चारों ओर फैला हुआ था जिसका नाम था शंभसाधन (इसके भाई कुंभसाधन को महावीर हनुमान ने बाल्यकाल में ही मार दिया था।) शंभसाधन एक दिवस देवी अंजनी का हरण कर ले गया। केशरी ने उसका वधकर अंजनी को मुक्त करवाया। बाद में दोनों का विवाह धूमधाम से हुआ। एक दिवस महादेव ने पवनदेव को बुलाया और आदेश दिया कि वे नगमुनि के आश्रम में प्रतिष्ठित शिवांश को देवी अंजनी के गर्भ में स्थापित कर दें। पवनदेव ने ऐसा ही किया। कुछ समय बाद चैत्र पूर्णिमा के सूर्योदय काल में समस्त सृष्टियों को भयरहित करने वाले शंकरसुवन पवनपुत्र, अंजनीसुत, केशरीनंदन महावीर हनुमान का जन्म हुआ।
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