ये कथा वीरगाथा के रूप में शताब्दियों से सुनाई जाती रही है। इसलिए ये कथा ऐतिहासिक रूप से पूर्णत: सत्य हो ये आवश्यक नहीं है अत: इस कथा को पूर्णत: सत्य नहीं माना जाना चाहिए।
जितनी बार हिलयरी री धरती उतना धोल मैं तने दउ।।
अपने बालक को झूले में झुलाती वीरांगना गाते हुए कहती है कि वीरों की धमक से जितनी बार ये वीराधरा धमकी है उतनी बार तेरे झूले को मैं हिलाऊँगी।
कहते हैं कि वीर पैदा होते हैं, पर वीर केवल पिता के ओज से नहीं, माता के रक्त से भी संस्कार ग्रहण करते हैं और अगर माता वीरता की प्रतिमूर्ति हो तो पुत्र त्रिलोक अजेय हो जाता है। मैं जो कहानी आपको बताने जा रहा हूँ वो कहानी ऐसी ही एक महिला की है, जिसने एक ऐसे वीर पुत्र को जन्म दिया, जिसने मलेच्छ सल्तनत के छक्के छुड़ाकर मेवाड़ को फिर से राजपूतों के अधीन कर लिया।
सन् 1300-1400 ईस्वी की बात है। मेवाड़ मलेच्छ राजा अलाउद्दीन खिलजी के शासन के अंदर जा चुका था। यहाँ के शासक भीमसिंह मेवाड़ को पुन: प्राप्त करने की आशाएँ खो चुके थे, पर मन में कही एक आशा या कहें विचार उपदता रहता था कि शायद उनके पुत्र अजयसिंह इसे मुक्त करा सकें। अजयङ्क्षसह निर्वासित जीवन अरावली पर छुपकर गुजार रहे थे। वो खुद ही निराश और अकेले थे। आखिर भीमसिंह की आशाएँ लगती थी तो बड़े पुत्र अरिसिंह से जो यहाँ-वहाँ भटक रहे थे पर ये आशा जल्द ही एक ऐसा सवेरा लेकर आने वाली थी जिसकी कोई रात नहीं होने वाली थी।
एक बार यही अरिसिंह शिकार खेलते हुए एक जंगली सूअर का पीछा कर भटकते-भटकते एक गाँव में जा पहँुचे। उन्होंने एक बाण उसे मारा भी पर वो प्राण बचाने के लिए एक खेत में जा घुसा। अरिसिंह और उनके साथियों को ज्वार केे खेत में काम कर रही एक युवती भी देख रही थी। उस युवती ने बड़ी विनम्रता से अपने मचान से ही अरिसिंह और उनके साथियों से कहा कि आप थोड़ा रुकें, मैं आपका शिकार आपको लाकर देती हूं…. (क्योंकि यदि वो सभी घोड़े लेकर खेत में घुस जाते तो फसल नष्ट हो जाती।) यह कहकर वह युवती अपने मचान से उतरी और उसने ज्वार का एक पेड़ उखाड़कर उसे नुकीला बनाया और खेत में जाकर उस सूअर का दाँत पकड़कर उसको मार दिया फिर उसे घसीटकर अरिसिंह के पास लाकर पटक दिया। तत्पश्चात वह अपने मचान पर पुन: चली गयी। शाम हो रही थी अरिसिंह ने खेत के कुछ पास ही अपने साथियों के साथ डेरा डाला। घोड़े वहीं बाँध दिए गए। सभी अपने नियमित काम में लग गए। दूसरी ओर वो वीर युवती घर को लौटने लगी।गाँव के ही कुछ बालक और बालिकाएं उसे मिले युवती से उनके साथ खेल ही खेल में एक पत्थर तेजी से उछालकर फेंका जो अरिसिंह के घोड़े की टाँग में जा लगा और घोड़े की टाँग टूट गई। अरिसिंह ने ये देखा तो वो अपने अधीनस्थ पर क्रोधित हो गए- अरे, ऐसे कैसे घोड़े लगाए कि उनकी टाँग टूट गई। अधीनस्थ गुस्से में आ गया वो जानता था कि ये काम उसी युवती का है। (कुछ जगह ऐसा वर्णन भी मिलता है कि उस युवती ने वहाँ पहुँचकर सारी बात अरिङ्क्षसह को स्पष्ट रूप से निर्भीक होकर बता दी थी, जिससे वो उसकी निर्भीकता देखकर प्रसन्न भी हुए थे।) उसने मन में प्रतिशोध की गाँठ बाँध ली और शीघ्र ही उसे मौका भी मिल गया। दूसरे दिन वही वीर युवती सिर पर मटके और हाथ में बछड़े की रस्सी लिए कच्ची डगरिया पर जाती मिल गई। अधीनस्थ ने सोचा कि अगर घोड़ा निश्चित दिशा में दौड़ा दूँ तो बछड़ा घबराकर भागेगा और कोमलांगी युवती गिर पड़ेगी, मटके टूट जाएंगे, चोटिल होगी और प्रतिशोध पूरा हो जाएगा।उसने घोड़ा दौड़ाया युवती आपद का भांप गई और विपरीत दिशा में बछड़े को दौड़ा दिया और बछड़े की रस्सी में फंसकर अधीनस्थ घोड़े समेत ऐसा गिरा कि उसे छठीं का दूध याद आ गया। ये बात जब राणा अरिसिंह को पता चली तो उन्होंने सोचा कि ये युवती जब इतनी वीर और ज्ञानी है तो प्रकट रूप से इसकी संतान इसी के महान गुणों से विभूषित होगी। युवती जो अपने फसल की रक्षा के लिए जंगली सूअर से मार देती है। अपनी विद्वता से विपत को भाँप लेती है। मेवाड़ को ऐसी ही संतान की आवश्यकता भी है। अरिसिंह ने इस युवती को अपनी अर्धांगिनी बनाने का फैसला किया और उसके पिता चंद्राणा से उस युवती का हाथ माँगा। ऐसा कहते है कि चन्द्रणा इस विवाह के लिए राजी न हुए पर अपनी पत्नी और युवती की माँ के समझाने पर वो इस विवाह के लिए राजी हो गए। विवाह हुआ और इसी वीर युवती की कोख से मेवाड़ के महान भविष्य की सिंहनाद करने वाला बालक पैदा हुआ जिसका नाम था, राणा हमीर। (राणा हमीर ने मलेच्छ राजा अलाउद्दीन खिलजी के शासन को मेवाड़ से समाप्त कर उसे पुन: राजपूतों के अधीन किया था। राणा हमीर सबसे पहले राणा माने जाते हैं। ) इस वीर युवती का नाम था चन्द्राणी, चन्द्राणा की पुत्री वीर चन्द्राणी, चन्द्रमा सी शीतल और सूर्य सी तेजस्वी।इन्हें ही वीरमाता चन्द्राणी के नाम से जाना जाता है। ऐसी महान वीरमाता को प्रणाम।
ये कथा वीरगाथा के रूप में शताब्दियों से सुनाई जाती रही है। इसलिए ये कथा ऐतिहासिक रूप से पूर्णत: सत्य हो ये आवश्यक नहीं है अत: इस कथा को पूर्णत: सत्य नहीं माना जाना चाहिए।
जितनी बार हिलयरी री धरती उतना धोल मैं तने दउ।।
अपने बालक को झूले में झुलाती वीरांगना गाते हुए कहती है कि वीरों की धमक से जितनी बार ये वीराधरा धमकी है उतनी बार तेरे झूले को मैं हिलाऊँगी।
कहते हैं कि वीर पैदा होते हैं, पर वीर केवल पिता के ओज से नहीं, माता के रक्त से भी संस्कार ग्रहण करते हैं और अगर माता वीरता की प्रतिमूर्ति हो तो पुत्र त्रिलोक अजेय हो जाता है। मैं जो कहानी आपको बताने जा रहा हूँ वो कहानी ऐसी ही एक महिला की है, जिसने एक ऐसे वीर पुत्र को जन्म दिया, जिसने मलेच्छ सल्तनत के छक्के छुड़ाकर मेवाड़ को फिर से राजपूतों के अधीन कर लिया।
सन् 1300-1400 ईस्वी की बात है। मेवाड़ मलेच्छ राजा अलाउद्दीन खिलजी के शासन के अंदर जा चुका था। यहाँ के शासक भीमसिंह मेवाड़ को पुन: प्राप्त करने की आशाएँ खो चुके थे, पर मन में कही एक आशा या कहें विचार उपदता रहता था कि शायद उनके पुत्र अजयसिंह इसे मुक्त करा सकें। अजयङ्क्षसह निर्वासित जीवन अरावली पर छुपकर गुजार रहे थे। वो खुद ही निराश और अकेले थे। आखिर भीमसिंह की आशाएँ लगती थी तो बड़े पुत्र अरिसिंह से जो यहाँ-वहाँ भटक रहे थे पर ये आशा जल्द ही एक ऐसा सवेरा लेकर आने वाली थी जिसकी कोई रात नहीं होने वाली थी।
एक बार यही अरिसिंह शिकार खेलते हुए एक जंगली सूअर का पीछा कर भटकते-भटकते एक गाँव में जा पहँुचे। उन्होंने एक बाण उसे मारा भी पर वो प्राण बचाने के लिए एक खेत में जा घुसा। अरिसिंह और उनके साथियों को ज्वार केे खेत में काम कर रही एक युवती भी देख रही थी। उस युवती ने बड़ी विनम्रता से अपने मचान से ही अरिसिंह और उनके साथियों से कहा कि आप थोड़ा रुकें, मैं आपका शिकार आपको लाकर देती हूं…. (क्योंकि यदि वो सभी घोड़े लेकर खेत में घुस जाते तो फसल नष्ट हो जाती।) यह कहकर वह युवती अपने मचान से उतरी और उसने ज्वार का एक पेड़ उखाड़कर उसे नुकीला बनाया और खेत में जाकर उस सूअर का दाँत पकड़कर उसको मार दिया फिर उसे घसीटकर अरिसिंह के पास लाकर पटक दिया। तत्पश्चात वह अपने मचान पर पुन: चली गयी। शाम हो रही थी अरिसिंह ने खेत के कुछ पास ही अपने साथियों के साथ डेरा डाला। घोड़े वहीं बाँध दिए गए। सभी अपने नियमित काम में लग गए। दूसरी ओर वो वीर युवती घर को लौटने लगी।गाँव के ही कुछ बालक और बालिकाएं उसे मिले युवती से उनके साथ खेल ही खेल में एक पत्थर तेजी से उछालकर फेंका जो अरिसिंह के घोड़े की टाँग में जा लगा और घोड़े की टाँग टूट गई। अरिसिंह ने ये देखा तो वो अपने अधीनस्थ पर क्रोधित हो गए- अरे, ऐसे कैसे घोड़े लगाए कि उनकी टाँग टूट गई। अधीनस्थ गुस्से में आ गया वो जानता था कि ये काम उसी युवती का है। (कुछ जगह ऐसा वर्णन भी मिलता है कि उस युवती ने वहाँ पहुँचकर सारी बात अरिङ्क्षसह को स्पष्ट रूप से निर्भीक होकर बता दी थी, जिससे वो उसकी निर्भीकता देखकर प्रसन्न भी हुए थे।) उसने मन में प्रतिशोध की गाँठ बाँध ली और शीघ्र ही उसे मौका भी मिल गया। दूसरे दिन वही वीर युवती सिर पर मटके और हाथ में बछड़े की रस्सी लिए कच्ची डगरिया पर जाती मिल गई। अधीनस्थ ने सोचा कि अगर घोड़ा निश्चित दिशा में दौड़ा दूँ तो बछड़ा घबराकर भागेगा और कोमलांगी युवती गिर पड़ेगी, मटके टूट जाएंगे, चोटिल होगी और प्रतिशोध पूरा हो जाएगा।उसने घोड़ा दौड़ाया युवती आपद का भांप गई और विपरीत दिशा में बछड़े को दौड़ा दिया और बछड़े की रस्सी में फंसकर अधीनस्थ घोड़े समेत ऐसा गिरा कि उसे छठीं का दूध याद आ गया। ये बात जब राणा अरिसिंह को पता चली तो उन्होंने सोचा कि ये युवती जब इतनी वीर और ज्ञानी है तो प्रकट रूप से इसकी संतान इसी के महान गुणों से विभूषित होगी। युवती जो अपने फसल की रक्षा के लिए जंगली सूअर से मार देती है। अपनी विद्वता से विपत को भाँप लेती है। मेवाड़ को ऐसी ही संतान की आवश्यकता भी है। अरिसिंह ने इस युवती को अपनी अर्धांगिनी बनाने का फैसला किया और उसके पिता चंद्राणा से उस युवती का हाथ माँगा। ऐसा कहते है कि चन्द्रणा इस विवाह के लिए राजी न हुए पर अपनी पत्नी और युवती की माँ के समझाने पर वो इस विवाह के लिए राजी हो गए। विवाह हुआ और इसी वीर युवती की कोख से मेवाड़ के महान भविष्य की सिंहनाद करने वाला बालक पैदा हुआ जिसका नाम था, राणा हमीर। (राणा हमीर ने मलेच्छ राजा अलाउद्दीन खिलजी के शासन को मेवाड़ से समाप्त कर उसे पुन: राजपूतों के अधीन किया था। राणा हमीर सबसे पहले राणा माने जाते हैं। ) इस वीर युवती का नाम था चन्द्राणी, चन्द्राणा की पुत्री वीर चन्द्राणी, चन्द्रमा सी शीतल और सूर्य सी तेजस्वी।इन्हें ही वीरमाता चन्द्राणी के नाम से जाना जाता है। ऐसी महान वीरमाता को प्रणाम।
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