जीएसटी पर नरेंद्र मोदी की टांग खींचने का कॉलम लिखकर यशवंत सिन्हा ने ऐन चुनाव के समय मोदी पर वैसे ही घात किया जैसा जूलियस सीजर पर ब्रूटस ने किया था। वैसे मोदी भी कुछ-कुछ जूलियस सीजर की तरह हो भी गए हैं। मैं-मैं और सिर्फ मैं।
भाजपा को ब्राम्हणवादी पार्टी कहा जाता है। जब प्रधानमंत्री बनने की बात आई तो पार्टी ने दो मुख्य नेताओं ,अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी , में से अटल को आगे किया। हालांकि अटल मौन थे और लालकृष्ण आडवाणी को देखते हुए कम सक्रिय थे। लालकृष्ण ने अपनी सक्रियता से पार्टी में खास जगह बनाई थी। राममंदिर आंदोलन हो या कश्मीर तक की यात्रा उन्होंने भाजपा को हमेशा ऊर्जावान रखा। राममंदिर आंदोलन में तो उन्होंने अपनी कुर्बान भी दे डाली और बाबरी विध्वंस के मुकदमे को झेला। अटल के मौन को या उससे भी अधिक को आडवाणी ने मुखरता प्रदान की पर जब मौका आया तो अटल बाजी मार गए आडवाणी मन मसोसे ही थे कि उनको उपप्रधान मंत्री बना दिया गया पर यहां भी वो अपने मनमुताबिक काम नहीं कर सके। वो निराश हो गए।
आडवाणी ने पार्टी के लिए जो कुछ किया वो अटल की अपेक्षा ज्यादा था और महत्वपूर्ण भी। पार्टी ने भी जब-जब जरूरत पड़ी आडवाणी का खूब इस्तेमाल किया। बाबरी विध्वंस में बदनाम होना हो या किसी मामले में पार्टी का पक्ष रखना, भले ही उसमें आडवाणी का नुकसान ही क्यों न हो। आडवाणी को यकीन था कि दीनदयाल उपाध्याय की जनसंघ को भारतीय जनता पार्टी बनने के बाद यदि कोई खास मिला है तो वो अटल और आडवाणी ही हैं। वो जानते थे कि उनकी करनी का प्रतिफल उनको एक मार्किंग मैन के रूप में मिलेगा, इस लिए वो सबकुछ करते गए आंखें बंद करके, पर हुआ बिलकुल उलटा।
प्रधानमंत्री पद मिला अटल को उनको कुछ न मिला। इसके बाद पार्टी वनवास भोगती रही और जब मौका आया तो मोदी ने सबकुछ छीन लिया। आडवाणी के तेवर विरोधी थे। इसलिए उनके गुट की सुषमा स्वराज को पद मिला मगर शत्रुघ्रसिन्हा और उनके मित्र यशवंत में असंतोष बरकरार रहा। आडवाणी ने यहां शिवराजसिंह चौहान को बलि का बकरा बनाकर उनकी तुलना मोदी से कर दी। मोदी ने टोपी ठुकराई तो शिवराज ने पहन ली। फिल्म अभिनेता रजा मुराद ने तंज किया- टोपी तो पहननी ही पड़ेगी। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शिवराज और उनके बीच क्या हुआ? बताने की जरूरत नहीं है। शिवराज आज भी डरे हुए हैं और सामने चुनाव हैं। मोदी का पैदा किया असंतोष शिवराज को बेचैन कर रहा है।
इसके बाद मोदी एंड टीम ने आडवाणी को राष्ट्रपति पद का प्रलोभन दिया ताकि तत्काल का डैमेज कंट्रोल हो सके। मामला कुछ शांत हुआ। मोदी एंड टीम सभी विरोधियों का ठिकाने लगाती गई। मोदी के चाहने वाले बढ़े और पुराने नेता हाशिये पर चलते चले गए। आडवाणी इनमें से ही थे। आखिरकार राष्ट्रपति के निर्वाचन की बात आई। यहां मोदी ने मौके पर चौका मारा और कोविंद राष्ट्रपति बन गए। शत्रुघ्न ने असंतोष की आग को बाहर फंूका- आडवाणी राष्ट्रपति पद के योग्य उम्मीदवार थे। वैसे भी मोदी चाहते तो आडवाणी का राष्ट्रपति बनना निश्चित था। पर यहां आडवाणी से उनकी निजी शत्रुता भी निकली। याद रखिए आडवाणी वही व्यक्ति हैं जिन्होंने शिवराजसिंह चौहान को मोदी के विरोध में प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताया था।
पद गया और आडवाणी ने रकीब की तरह कसम खाई ताकत मेरी न रही तो तेरी भी न रहेगी। आपको बता दें कि आडवाणी सिंधी कायस्थ है और यशवंत और शत्रुघ्र सिन्हा भी कायस्थ ही है। कायस्थ जाति का गौरवशाली इतिहास और इसकी ताकत कितनी है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। कायस्थ लॉबी से धोखा मोदी को महंगा पड़ गया और ठीक चुनाव के समय यशवंत सिन्हा ने ब्रम्हास्त्र का संधन कर दिया।
अब क्या होगा? पता नहीं पर ये बात इतिहास में दर्ज की जानी चाहिए कि अगर आप अपने ही लोगों से दगा करेंगे तो आप रावण की तरह महाविनाश को पाएंगे। अपने लोगो से वैर संपूर्ण विनाश करता है। – चाणक्य
पद्मावती के बाद का लक्ष्य
लोगों के विरोध के बाद पद्मावती पर रोक लग गई है पर ये रिलीज होगी और माहौल ऐसा बना दिया गया है कि ये सुपरहिट हो सकती है और शायद बहुबली का रिकार्ड भी तोड़ डाले। पद्मावती सही है या नहीं सबकी अपनी राय है पर इस सब प्रकरण ने राजपूत समाज को एक कर दिया है और जिस तरह की उग्रता नजर आ रही है। उसकी ऊर्जा आगे चलकर आरक्षण विरोधी महालहर या सुनामी का रूप लेगी। ये बात कल जरूर सच होगी। पदमावती के बाद का लक्ष्य है आरक्षण विरोध, और इसके लिए अभी से तैयारी शुरू कर दी गई है।
जीएसटी पर नरेंद्र मोदी की टांग खींचने का कॉलम लिखकर यशवंत सिन्हा ने ऐन चुनाव के समय मोदी पर वैसे ही घात किया जैसा जूलियस सीजर पर ब्रूटस ने किया था। वैसे मोदी भी कुछ-कुछ जूलियस सीजर की तरह हो भी गए हैं। मैं-मैं और सिर्फ मैं।
भाजपा को ब्राम्हणवादी पार्टी कहा जाता है। जब प्रधानमंत्री बनने की बात आई तो पार्टी ने दो मुख्य नेताओं ,अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी , में से अटल को आगे किया। हालांकि अटल मौन थे और लालकृष्ण आडवाणी को देखते हुए कम सक्रिय थे। लालकृष्ण ने अपनी सक्रियता से पार्टी में खास जगह बनाई थी। राममंदिर आंदोलन हो या कश्मीर तक की यात्रा उन्होंने भाजपा को हमेशा ऊर्जावान रखा। राममंदिर आंदोलन में तो उन्होंने अपनी कुर्बान भी दे डाली और बाबरी विध्वंस के मुकदमे को झेला। अटल के मौन को या उससे भी अधिक को आडवाणी ने मुखरता प्रदान की पर जब मौका आया तो अटल बाजी मार गए आडवाणी मन मसोसे ही थे कि उनको उपप्रधान मंत्री बना दिया गया पर यहां भी वो अपने मनमुताबिक काम नहीं कर सके। वो निराश हो गए।
आडवाणी ने पार्टी के लिए जो कुछ किया वो अटल की अपेक्षा ज्यादा था और महत्वपूर्ण भी। पार्टी ने भी जब-जब जरूरत पड़ी आडवाणी का खूब इस्तेमाल किया। बाबरी विध्वंस में बदनाम होना हो या किसी मामले में पार्टी का पक्ष रखना, भले ही उसमें आडवाणी का नुकसान ही क्यों न हो। आडवाणी को यकीन था कि दीनदयाल उपाध्याय की जनसंघ को भारतीय जनता पार्टी बनने के बाद यदि कोई खास मिला है तो वो अटल और आडवाणी ही हैं। वो जानते थे कि उनकी करनी का प्रतिफल उनको एक मार्किंग मैन के रूप में मिलेगा, इस लिए वो सबकुछ करते गए आंखें बंद करके, पर हुआ बिलकुल उलटा।
प्रधानमंत्री पद मिला अटल को उनको कुछ न मिला। इसके बाद पार्टी वनवास भोगती रही और जब मौका आया तो मोदी ने सबकुछ छीन लिया। आडवाणी के तेवर विरोधी थे। इसलिए उनके गुट की सुषमा स्वराज को पद मिला मगर शत्रुघ्रसिन्हा और उनके मित्र यशवंत में असंतोष बरकरार रहा। आडवाणी ने यहां शिवराजसिंह चौहान को बलि का बकरा बनाकर उनकी तुलना मोदी से कर दी। मोदी ने टोपी ठुकराई तो शिवराज ने पहन ली। फिल्म अभिनेता रजा मुराद ने तंज किया- टोपी तो पहननी ही पड़ेगी। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद शिवराज और उनके बीच क्या हुआ? बताने की जरूरत नहीं है। शिवराज आज भी डरे हुए हैं और सामने चुनाव हैं। मोदी का पैदा किया असंतोष शिवराज को बेचैन कर रहा है।
इसके बाद मोदी एंड टीम ने आडवाणी को राष्ट्रपति पद का प्रलोभन दिया ताकि तत्काल का डैमेज कंट्रोल हो सके। मामला कुछ शांत हुआ। मोदी एंड टीम सभी विरोधियों का ठिकाने लगाती गई। मोदी के चाहने वाले बढ़े और पुराने नेता हाशिये पर चलते चले गए। आडवाणी इनमें से ही थे। आखिरकार राष्ट्रपति के निर्वाचन की बात आई। यहां मोदी ने मौके पर चौका मारा और कोविंद राष्ट्रपति बन गए। शत्रुघ्न ने असंतोष की आग को बाहर फंूका- आडवाणी राष्ट्रपति पद के योग्य उम्मीदवार थे। वैसे भी मोदी चाहते तो आडवाणी का राष्ट्रपति बनना निश्चित था। पर यहां आडवाणी से उनकी निजी शत्रुता भी निकली। याद रखिए आडवाणी वही व्यक्ति हैं जिन्होंने शिवराजसिंह चौहान को मोदी के विरोध में प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताया था।
पद गया और आडवाणी ने रकीब की तरह कसम खाई ताकत मेरी न रही तो तेरी भी न रहेगी। आपको बता दें कि आडवाणी सिंधी कायस्थ है और यशवंत और शत्रुघ्र सिन्हा भी कायस्थ ही है। कायस्थ जाति का गौरवशाली इतिहास और इसकी ताकत कितनी है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। कायस्थ लॉबी से धोखा मोदी को महंगा पड़ गया और ठीक चुनाव के समय यशवंत सिन्हा ने ब्रम्हास्त्र का संधन कर दिया।
अब क्या होगा? पता नहीं पर ये बात इतिहास में दर्ज की जानी चाहिए कि अगर आप अपने ही लोगों से दगा करेंगे तो आप रावण की तरह महाविनाश को पाएंगे। अपने लोगो से वैर संपूर्ण विनाश करता है। – चाणक्य
पद्मावती के बाद का लक्ष्य
लोगों के विरोध के बाद पद्मावती पर रोक लग गई है पर ये रिलीज होगी और माहौल ऐसा बना दिया गया है कि ये सुपरहिट हो सकती है और शायद बहुबली का रिकार्ड भी तोड़ डाले। पद्मावती सही है या नहीं सबकी अपनी राय है पर इस सब प्रकरण ने राजपूत समाज को एक कर दिया है और जिस तरह की उग्रता नजर आ रही है। उसकी ऊर्जा आगे चलकर आरक्षण विरोधी महालहर या सुनामी का रूप लेगी। ये बात कल जरूर सच होगी। पदमावती के बाद का लक्ष्य है आरक्षण विरोध, और इसके लिए अभी से तैयारी शुरू कर दी गई है।
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